हर ख़ुशी है लोगों के दामन में,
पर एक हंसी के लिए वक़्त नही।
दिन रात दौड़ती दुनिया में,
ज़िन्दगी के लिए ही वक़्त नही।
माँ की लोरी का एहसास तो है,
पर माँ को माँ कहने का वक़्त नही.
सारे रिश्तों को तो हम मार चुके,
अब उन्हें दफनाने का भी वक़्त नही.
सारे नाम मोबाइल में हैं,
पर दोस्ती के लिये वक़्त नही.
गैरों की क्या बात करें,
जब अपनों के लिए ही वक़्त नही.
आंखों मे है नींद बड़ी,
पर सोने का वक़्त नही.
दिल है गमों से भरा हुआ,
पर रोने का भी वक़्त नही.
पैसों कि दौड़ मे ऐसे दौडे,
की थकने का भी वक़्त नही.
पराये एहसासों कि क्या कद्र करें,
जब अपने सपनो के लिए ही वक़्त नही.
तू ही बता ए जिन्दगी,
इस जिन्दगी का क्या होगा,
की हर पल मारने वालों को,
जीने के लिए भी वक़्त नही.......
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1 comment:
यार शिल्पा, यह अगर मौलिक है तो बहुत अच्छा है।
अब ये मत पूछना कि मौलिक क्या होता है!!
खैर, अपना तो यह कहना है
हम हमेशा सोचते रहे कि 'कुछ' कर लें तब जीने का वक्त होगा
अंत में जब उस कर्ता से मिले तो वो बोले
और कुछ तो किया नहीं, जी ही लिए होते!
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